तारापीठ मंदिर का इतिहास बहुत ही रोचक और रहस्यों से भरा हुआ है । माँ काली के अनेकों स्वरूप है, माँ के प्रत्येक रूपों का अपना अलग-अलग महत्व है । तारापीठ जो की दो अक्षरों से मिलकर बना है, (तारा+पीठ) तारा का अर्थ “आँख की पुतली” और पीठ का अर्थ “स्थल” होता है । आज के आर्टिकल में हम शक्ति की देवी माँ तारा के तारापीठ मंदिर के बारे में जानेंगे।
तारापीठ मंदिर का इतिहास
हिंदू धर्म के अनुसार इस मंदिर (तारापीठ) में माँ सती के नयन (आँख की पुतली) गिरी थी, जिसके कारण यह स्थल एक शक्तिपीठ बन गया जिसका नामकरण तारापीठ के रूप में हुआ । इस धार्मिक स्थल को “नयन तारा मंदिर” के नाम से भी जाना जाता है । इस स्थान का नाम पहले चाँदीपुर हुआ करता था जिसे बाद में बदलकर तारापीठ रखा गया।

यह मंदिर बहुत ही प्राचीन एवम् रहस्यमयी है जिसे हिन्दू समुदायों के द्वारा अत्यंत ही पवित्र धार्मिक स्थल माना जाता है । 51 शक्तिपीठों में से तारापीठ मंदिर एक शाही शक्तिपीठ है जहां आज भी तांत्रिक अनुष्ठान इत्यादि किए जाते है ।
भारतीय उपमद्वीप (भारत, नेपाल, बांग्लादेश, तिब्बत और पाकिस्तान) मिलकर कुल 51 शक्तिपीठों में से 5 शक्तिपीठ बीरभूम ज़िले में ही स्थिल है, जो कि नालहाटी, बकुरेश्वर, बंदिकेश्वरी, फूलोरा देवी और तारापीठ नाम से विख्यात है ।
माँ तारा की महिमा के कारण तारापीठ मंदिर की अपनी अलग ही ख़ासियत है क्योंकि यहाँ दूर-दूर से माँ के दर्शन करने आये सभी श्रद्धालुओं की मनोकामना पूरी हो जाती है । जिसके कारण यहाँ सालों भर भक्तों का ताँता लगा रहता है । तारापीठ सबसे प्रमुख धार्मिक शक्तिपीठ के साथ-साथ यह एक सिद्धपीठ भी है, जहां आज भी तांत्रिक अनुष्ठानों का पालन किया जाता है । इस मंदिर में सालों भर माँ को भोग लगाने के बाद भक्तों को मुफ़्त भोजन खिलाया जाता है । इस मंदिर की ख़ासियत यह है कि यहाँ माँ को शराब और जानवरों की बलि चढ़ाई जाती है।
तारापीठ मंदिर की उत्पत्ति और महत्व
तारापीठ मंदिर की उत्पत्ति और महत्व से संबंधित अनेकों पौराणिक कथाएँ प्रसिद्ध है, जो तारापीठ मंदिर में स्थापित माता देवी तारा से संबंधित है। इस शक्तिपीठ से संबंधित एक प्रसिद्ध कथा यह है कि शिव जी की पत्नी माता सती ने जब अपने पिता दक्ष के द्वारा आयोजित किए जा रहे महान यज्ञ में दक्ष के द्वारा जानबूझ कर जब शिव जी को आमंत्रित नहीं किया गया जिससे माता सती को बहुत अपमानित महसूस हुआ।

शिव जी के मना करने के बावजूद भी सती ने अपने पिता के आयोजित महान यज्ञ स्थल पर चली गई। जब माता सती यज्ञ स्थल पर पहुँचीं तो उनके पिता दक्ष ने यज्ञ में उपस्थित सभी लोगों के बीच शिव जी के लिए अपशब्द कहकर अपमान करने लगे। इस अपमान को सती ने सहन नहीं किया और यज्ञ की आग में कूदकर अपनी जान दे दी। इस दुखद घटना को देख शिव क्रोधित होकर महातंडाव करने लगे और माता सती के मृत शरीर को अपने कंधे पर लिए तांडव करते हुए पूरे ब्रह्मांड को विनाश करने के लिए आतुर हो गये थे ।
ब्रह्माण्ड का विनाश होने से रोकने के लिए भगवान विष्णु जी ने शिव जी के क्रोध को शांत करने के लिए अपने सुदर्शन चक्र से माता सती के शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दिये । ऐसा करने पर माता सती के शरीर के अंग देश के अनेकों स्थलों पर जाकर गिरा । देश के जिन-जिन हिस्सों पर माता के शरीर के अंग के टुकड़े गिरे वे शक्तिपीठ कहलाये।
पौराणिक हिंदू प्रम्पराओं के अनुसार शक्ति की देवी माँ तारा को ज्ञान की दस देवियों में से दूसरी देवी मानी जाती है और इन्हें ही महाकाली, भद्रकाली, कालिका के रूप में भी जानी जाती है ।
तारापीठ से संबंधित दूसरी कथा
ऋषि वशिष्ट जब तांत्रिक कला में महारत हासिल कर रहे थे लेकिन उनके द्वारा किए गये लगातार प्रयास के वाबज़ूद भी उन्हें सफलता नहीं मिली तब ऋषि वशिष्ट भगवान बुद्ध से मिलने चले गये, बुद्ध ने ऋषि वशिष्ट को तारापीठ जाकर माँ तारा की पूजा करने को कहा ।
ऋषि वशिष्ट भगवान बुद्ध के कहने पर तारापीठ आ कर पंच ताराकार अर्थात पाँच वर्जित वस्तुओं का प्रयोग से तांत्रिक अनुष्ठान के साथ माँ तारा की पूजा अर्चना करने लगे जिससे प्रसन्न होकर माँ तारा ऋषि वशिष्ट के सामने प्रकट हुई जिसके पश्चात माँ तारा एक पत्थर में बदल गई ।
उस समय से तारापीठ में इस मूर्ति को माँ तारा के नाम से पूजा जाने लगा । तारापीठ में बामखेपा संत के लिए भी पूजा जाता है क्योकि इन्होंने अपना पूरा जीवन माँ तारा की पूजा में ही समर्पित कर दिया था, बामखेपा का आश्रम भी मंदिर के ठीक समीप में स्थित है ।
तारापीठ मंदिर में पूजा और समारोह
तारापीठ मंदिर में प्रत्येक दिन पूजा अर्चना की जाती है लेकिन चैत्र माह के हर मंगलवार को ग्रीष्मकालीन उत्सव मनाया जाता है। प्रत्येक वर्ष अगस्त के महीने में अमावस्या में आयोजित यह बेहद ही प्रसिद्ध कार्यक्रम है।
प्रत्येक दिन सुबह के 4:00 बजे देवी तारा को शहनाई एवं अन्य वाद्य यंत्रों के माध्यम से जगाया जाता है इसके उपरांत सुबह के 6:00 बजे से देवी तारा की पूजा के लिए द्वार खोल दिये जाते है ।
मंदिर परिसर के भीतर स्थित तालाब में श्रद्धालु पवित्र स्नान कर ख़ुद को शुद्ध करते है। कहा जाता है कि तालाब के पानी में औषधीय गुण पाए जाते है, इस तालाब के पानी में इतनी शक्ति है कि मृत व्यक्ति को भी जीवित किया जा सकता है।
माँ के मंदिर में बकरे की बलि देने का भी प्रचलन है, भक्तों का मानना है कि मंदिर में बकरे की बलि देने से माँ प्रसन्न होती है और भक्तों की मनोकामना पूर्ण करती है। बकरे की बलि देने से पहले मंदिर परिसर में स्थित तालाब में बकरे को नहलाया जाता है एवं स्वयं को भी तालाब में स्नान कर शुद्ध किया जाता है। इसके बाद मंदिर में बकरे के गर्दन को एक ही वार में काट दिया जाता है। इसके उपरांत बकरे के खून की थोड़ी मात्रा एक फूलदान में लेकर भगवान को मंदिर में भेंट किया जाता है।
माना जाता है कि बकरे की बलि जिस स्थान पर दी जाती है वहाँ से अगर श्रद्धालु खून की एक बूँद अपने-अपने माथे पर लगा लेते है तो श्रद्धालुओं की माँगी सारी मनोकामना पूरी हो जाती है।
तारापीठ मंदिर की बनावट/वास्तुकला
तारापीठ मंदिर की बनावट लाल रंग की मोटी-मोटी ईटों से की गई गई है। मंदिर का निर्माण 1225 ई० में मल्लारपुर गाँव के रहने वाले जगन्नाथ राय ने करवाया था। माता का मूल मंदिर क्षतिग्रस्त हो चुका है। माँ के मंदिर के द्वार पर दुर्गा माँ और उनके परिवार की तस्वीरें बनाई गई है। मंदिर में कुल आठ छतें है। मंदिर के गर्भगृह में तारा माँ की दो प्रतिमाएँ रखी गई है।
तारा माँ की एक पत्थर की प्रतिमा जो की शिव जी को दूध पिलाती हुई दर्शायी गई है।
“आदिम प्रतिमा” जिसे आमतौर पर श्रद्धालु देखते है जो माता के उग्र रूप दर्शायी गई है जिसमें माँ के चार भुजाओं के साथ खोपड़ियों की माला पहले हुए और जीभ बाहर निकले हुए दर्शायी गई है। माँ के लहराते बात सर पर चाँदी के मुकुट और माँ को लाल फूलों से सुसज्जित किया गया है।
तारापीठ के महायोगी बामाखेपा कौन थे
बामाखेपा तारापीठ मंदिर में एक संत थे, जिनका पूरा नाम “बामाचंद्रा चट्टोपाध्याय” था इनका जन्म 22 फ़रवरी 1837 को रामपुरहाट के अटला गाँव, बीरभूम ज़िला, पश्चिम बंगाल में हुआ था इन्हें आज भी बहुत ही सम्मान के साथ पूजा जाता है और साधक बामाखेपा का “साधना पीठ” मंदिर माँ तारा के मंदिर के कुछ गज की दूरी पर शमसान घाट के निकट स्थित है, बामाखेपा को अवधूत या एक लोकप्रिय पागल संत के रूप में जाने जाते थे ।

ऐसा कहा जाता है कि बामाखेपा श्मसान में जलती हुई चिता के बग़ल में बैठा हुआ था उसी समय आकाश में नीले रंग की ज्योति फुट पड़ी जिसके फलस्वरूप वहाँ चारो तरफ़ प्रकाश ही प्रकाश फैल गया उसी प्रकाश में माँ तारा ने अपने भयंकर रूप में बामाखेपा को दर्शन दिये थे ।

बामाखेपा माँ तारा के परम भक्त थे वे मंदिर के पास ही रहते थे और श्मशान घाट में ध्यान सधना करते थे । इन्होंने अपना घर छोटी सी उम्र में ही त्याग दिया था और तारापीठ में कैलाशपति बाबा नाम के एक संत के संरक्षण चले आये थे । बामाखेपा ने अपने गुरु से योग और तांत्रिक साधना में निपुणता हासिल किया था जिसके कारण वे तारापीठ के आध्यात्मिक प्रमुख बन गये थे ।।
कहा जाता है की बामाखेपा के पास लोग अपनी बीमारी का इलाज कराने और आशीर्वाद लेने आया करते थे । एक बार बामाखेपा ने मंदिर के नियमों का पालन नहीं किया था जिसके कारण मंदिर के पुजारियों ने वामाखेपा के ऊपर हमला कर दिया था क्योकि उन्होंने माता के प्रसाद को स्वयं खा लिया था।
माँ तारा ने नटौर की “रानी अन्नादासंदरी देवी” के सपने में आ कर कहा था कि वे सबसे पहले “संत बामाखेपा” को भोजन खिलायें इसके बाद माता को भोग लगाये क्योकि बामाखेपा उनके पुत्र है। इस घटना के बाद मंदिर में सबसे पहले बामाखेपा को भोजन कराया गया।
तारापीठ मंदिर की यात्रा कैसे करें
तारापीठ मंदिर की यात्रा के लिए आपको कोलकाता (पश्चिम बंगाल) से लगभग 265 किलोमीटर की दूरी तय करनी होगी । यह पवित्र शक्तिपीठ बीरभूम जिले में बहने वाली द्वारका नदी तट के समीप स्थित है । यहाँ आने के लिए आप नेशनल हाइवे 13 (NH13) के रास्ते स्वयं ड्राइव कर के भी आ सकते है ।

तारापीठ यात्रा हवाई जहाज़ से :-
तारापीठ की यात्रा हवाई जहाज़ के माध्यम से करना चाहते है तो आपको निकटतम हवाई अड्डा नेताजी सुभाष चंद्र बोस, कोलकाता आना होगा । इसके बाद आपको टैक्सी, बस या ट्रेन के माध्यम से मंदिर तक पहुँच सकते है।
तारापीठ यात्रा ट्रेन से :-
तारापीठ यात्रा ट्रेन से करने के लिए आपको निकटतम रेलवे स्टेशन रामपुरहाट आना होगा यहाँ आने के लिए आपको कोलकाता से सीधी ट्रेन मिल जाएगी। रामपुरहाट रेलवे स्टेशन पहुँचने के बाद स्टेशन से बाहर ऑटो के माध्यम से मंदिर तक पहुँच सकते है जिसका किराया 30 रुपया लगेगा। रेलवे स्टेशन से मंदिर की दूरी लगभग 9 किलोमीटर है।
तारापीठ यात्रा बस से :-
तारापीठ मंदिर का समय और संपर्क विवरण
माँ तारा के दर्शन हेतु श्रद्धालुओं के लिए पूरे वर्ष माता का मंदिर के द्वार खुले रहते है।
माँ तारा के दर्शन का समय प्रतिदिन निम्नलिखित है –
सुबह दर्शन (प्रभात दर्शन) 5:30 से दोपहर के 12:00 बजे तक
दोपहर दर्शन (मध्यान दर्शन) 1:30 बजे से शाम के 6:00 बजे तक
शाम दर्शन (संध्या दर्शन) 7:30 बजे से रात 10:00 बजे तक
तारापीठ मंदिर में माता के भोग के लिए दोपहर के 12:00 बजे से 1:30 बजे तक और शाम के 6:00 बजे से 7:30 बजे तक संध्या आरती के लिए मंदिर के द्वार बंद कर दिये जाते है। इस समय श्रद्धालुओं को मंदिर में माँ के दर्शन की अनुमति नहीं होती है।
तारापीठ मंदिर स्थान- तारापीठ वीआईपी रोड, तारापीठ टाउन, रामपुरहाट, ज़िला- बीरभूम, पश्चिम बंगाल 731233
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संपर्क विवरण- माँ तारा की ऑनलाइन पूजा बुक करने और अपना प्रसाद अपने घर पर मँगवाने के लिए यहाँ दिये गये संपर्क नंबर पर संपर्क करें या व्हाट्सऐप करें –


